Saturday, February 4, 2012


मेरे अस्तित्व के अटल से
उठी हैं एक दूर्निवार जिज्ञासा

कौन हूँ मैं ?
कौन की खोज मे हूँ  मैं ?
धरती और आकाश की
संगति सी हूँ  मैं
जो हैं पर नहीं हैं
जो नहीं हैं पर हैं
ऐसी क्षितिज सी हूँ  मैं
तुम कहते हो न तद्भासयते सूर्यो
और मैं हर दिन मेरी कोख से
जन्म देती हूं एक नये सूर्य को
तुम कहते हो
न शशांको
और मै
सूर्य को ले लेती हूं अपने आगोश मे
कौन हो तुम ?
कौन हूँ  मैं ?
क्यों मैं अनजानी हूं अपने आपसे ?
क्यों सम्मोहित हूँ  मैं
तुम्हारी बाँसुरी के नाद से ?
YASODHARA PREETI

2 comments:

  1. अच्छी कविता है। अपने आस्तित्व की खोज करता है इन्सान।

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  2. बबीता वाधवानीji thankx

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